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ख़्वाब को हकीकत बनाने चला हूँ

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( फोटो 2011, जब ये लाइनें लिखी थी)  इज्जत, शौहरत, चाहत, नफ़रत इनकी फ़िक्र अब कहाँ है मुझे मैं तो एक चिंगारी जलाने चला हूँ ख़्वाब को हकीकत बनाने चला हूँ... अब ना दिल के नगाड़ों का शोर न ही है विचारों के द्वंद का जोर मैं तो एक हिम्मत जुटाने चला हूँ ख़्वाब को हकीकत बनाने चला हूँ... दुनिया के मेले में बेवफ़ाई के रेले जो थे बे-ईमां, वो भी खूब खेले इन फ़िज़ाओं में चलते, हौंसलों में पलते शमशानों सी सूनी, बाजारों सी उलझी सितारों की दुनिया बसाने चला हूँ... ना खंजर का डर है, परिंदों से पर हैं ये कोशिश नहीं है, है ये एक चुनौती इस चुनौती में खुद को मिटाने चला हूँ ख़्वाब को हकीकत बनाने चला हूँ... नजारे हैं बंजर, चुनौतियों का समंदर पर इरादें हैं पत्थर, चाहे हो जो भी मंजर  बस इरादों से दुनिया हिलाने चला हूँ खंडहरों से इमारत बनाने चला हूँ... ये यमुना की मिट्टी जो है सर्द मुझमें कर्ज इसी का मैं चुकाने चला हूँ जो बहता रगों में है खून उस से इतिहास के पन्ने सजाने चला हूँ... अनिश्चित था कल, अनिश्चित है कल यूँ तो है जिंदगी का अनिश्चित हर पल भुलाकर हर ठोकर, मिटाकर हर किस्सा बस इस पल को अपना बनाने चला हूँ... फितरत जो

तैयारी

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                       " तैयारी "  ये बात उन दिनों की है जब जिंदगी गोल चक्कर पे खड़ी थी। गोल चक्कर भी मानो कानपुर का घण्टाघर। जहां से 07 रास्ते निकलते हैं। चले तो जाओ जिस भी रास्ते, लेकिन कहाँ जाके रुकोगे ये समझ पाना थोड़ा मुश्किल। और कहाँ आपको ठसम-ठस जाम का झाम मिल जाए ये जान पाना और भी मुश्किल। खैर, कब तक खड़े रहते। रास्ता चुना "UPSC" का। माने की सिविल सर्विसेज में भर्ती होने के लिए दिया जाने वाला इम्तेहान। इसका मोटा मोटी अर्थ ये भी हुआ कि सरकारी नौकरियों के माउंट एवरेस्ट की तरफ नजर उठाई गई। साल था 2011 और दिल्ली यूनिवर्सिटी के फीजिक्स डिपार्टमेंट में दो साल मास्टर्स की डिग्री हासिल करने की असफल कोशिश का दुखद अंत हुआ ही था कि होस्टल से भी बेघर होना हुआ था। बड़े बे-आबरू होकर वार्डन के कूचे से हम निकल चुके थे। वार्डन महोदय खुश तो बहुत हुए थे उस दिन।  ये किस्सा किसी और दिन के लिए।  सिविल सर्विसिज़ एग्जामिनेशन की पढ़ाई के लिए मैंने आजतक एक ही शब्द को उचित और पवित्र माना है। "तैयारी", तैयारी के दिन, तैयारी वाले दोस्त, तैयारी वाला कमरा, आज भी दिन में पांच सात बार य