तैयारी

                       " तैयारी


ये बात उन दिनों की है जब जिंदगी गोल चक्कर पे खड़ी थी। गोल चक्कर भी मानो कानपुर का घण्टाघर। जहां से 07 रास्ते निकलते हैं। चले तो जाओ जिस भी रास्ते, लेकिन कहाँ जाके रुकोगे ये समझ पाना थोड़ा मुश्किल। और कहाँ आपको ठसम-ठस जाम का झाम मिल जाए ये जान पाना और भी मुश्किल। खैर, कब तक खड़े रहते।

रास्ता चुना "UPSC" का। माने की सिविल सर्विसेज में भर्ती होने के लिए दिया जाने वाला इम्तेहान। इसका मोटा मोटी अर्थ ये भी हुआ कि सरकारी नौकरियों के माउंट एवरेस्ट की तरफ नजर उठाई गई। साल था 2011 और दिल्ली यूनिवर्सिटी के फीजिक्स डिपार्टमेंट में दो साल मास्टर्स की डिग्री हासिल करने की असफल कोशिश का दुखद अंत हुआ ही था कि होस्टल से भी बेघर होना हुआ था। बड़े बे-आबरू होकर वार्डन के कूचे से हम निकल चुके थे। वार्डन महोदय खुश तो बहुत हुए थे उस दिन।  ये किस्सा किसी और दिन के लिए। 

सिविल सर्विसिज़ एग्जामिनेशन की पढ़ाई के लिए मैंने आजतक एक ही शब्द को उचित और पवित्र माना है। "तैयारी", तैयारी के दिन, तैयारी वाले दोस्त, तैयारी वाला कमरा, आज भी दिन में पांच सात बार ये लफ्ज़ जुबाँ पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है।

लोग अक्सर पूछते हैं कैसे तैयारी की, क्या अलग किया। मैं इस बात का जवाब कभी दे नहीं पाया। आज कोशिश कर रहा हूं। 

शुरुआत की गई ठिकाना ढूंढने से। राजेन्द्र नगर में बहुत कमरे देखे पर मन लगने वाली बात नहीं दिखी। कुछ ज्यादा ही प्रोफेशनल हो गया है ये एरिया, हर गली हर मकान में एक जैसा ही माहौल है। घुटन सी महसूस हुई। बेकार की कोशिश करने के बाद घूम फिर कर वापस नार्थ कैम्पस की तरफ रुख किया। कमला नगर के पीछे जवाहर नगर  में एक पुराने ख़यालात वाली बिल्डिंग में कुछ पुराने कमरे खाली मिले। उसी में एक कमरा लिया गया, तीन रोज़ बाद घर से कुछ लोग आए तो कहा इस कूड़ेदान में रहोगे तो पढोगे क्या। उसी बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर 1500 रुपये और ज्यादा किराए वाला कमरा दिला दिया और निर्णय सुनाया कि ये कमरा थोड़ा साफ सुथरा है।इसमें रहो। कमरे में आर पार दो बड़ी खिड़कियां, छत थोड़ी ऊंची जैसा कि पुराने मकानों में होती थी, सामने छोटा सा आंगन, और बगल में एक और कमरा। माने कि ऐसी जगह जहां ,अगर आपके शौक राजशाही नहीं है तो, मन लग जाए। 
और यही है पहली सलाह, कमरा ऐसा ढूंढों जहां थोड़ी हवा चलती हो, दम न घुटे, दिल दिमाग और तबियत को खुलेपन का एहसास हो। बेशक कमरा मॉडर्न न हो, फर्नीचर डार्क ब्राउन कलर का न हो लेकिन फेफड़ों में हवा थोड़ी ताज़ी भरे। 

फिर सिलसिला शुरू हुआ इस बिल्डिंग के सात और कमरों में लोगों के आने का। सबसे पहले आया सौरभ ( हम सबके लिए और उसके खुद के लिए 'चोरब')। मेरा फिजिक्स वाला क्लासमेट जिसने फिजिक्स को फर्स्ट ईयर के बाद ही अलविदा कह दिया था। किताबों का जखीरा लिए, चिकेन मटन का बेइंतेहा शौकीन।हरीश उर्फ पहाड़ी, हमेशा हँसने और हँसाने वाला, लड़कियों की नज़र में आदर्श विद्यार्थी, शायद नोट्स बहुत अच्छे बनाता रहा होगा। प्रवीण, बनारस से मेरा जूनियर लेकिन जो छोटे भाई से भी ज्यादा सम्मान देता रहा और सुबह 6 बजे तक पढ़ने वाला योद्धा।अभिनव, मेरा बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी का क्लासमेट, जिसका कमरा भविष्य में हम सबका होटल बनने वाला था क्योंकि उसने AC और wifi लगवा लिया था। अर्पित, उर्फ वकील साहब, सुबह 9 बजे से रात 2 बजे तक लाइब्रेरी में रहने वाले हमारे आदर्श तैयारी-कर्ता। सिद्धार्थ, उर्फ नुसरत साहब, जिसकी सुबह सांझ के पहर होती थी और सुबह का नाश्ता शाम 5 बजे, हमारी तैयारी, भोजन और ज्ञान वर्धन का अत्यंत अहम साथी। नेति-धोती वाले पाण्डे जी भी आए, नाराज़ हुए और चले गए।मौसूम बाद में आया लेकिन मेरे कमरे को उसने आज भी अपना घर बनाया हुआ है। बेझिझक वहां जाके रुक जाता हूं।  इसके अलावा एक कुलदीप जी रहे, जिनको बदन के ऊपरी हिस्से पर कपड़ा रखने की कतई आदत नहीं थी, और बाल इतने की अनिल कपूर को भी कॉम्प्लेक्स आ जाए। एक कमरे में एक युगल ऐसा भी आया जो ट्रैक्टर लेकर आया था और क्लास करने ट्रैक्टर पर ही जाया करता था। कुछ दिन ट्रैक्टर चलाने के बाद माहौल की गम्भीरता में अपने आप को मिसफिट समझते हुए और अपनी फसल के बर्बाद होने की संभावना के मद्देनज़र , दोनों अपना ट्रैक्टर लेकर कमरा छोड़कर चले गए। अईसे ही लोग आते गए, कारवां बनता गया। 

दूसरी सलाह, अकेले रहोगे तो बोरियत होगी। अपनी फ्रीक्वेंसी वाले दो तीन अच्छे दोस्त एक साथ रहेंगे तो मन लगता है। बशर्ते कि सभी का मुख्य मकसद पढ़ना हो। ऐसे वाले यार दोस्त, जिनकी core competence मौज मस्ती है और मकसद पढ़ाई के इतर कुछ है, उनसे कुछ दिन परहेज करना बेहतर रहेगा। 

खाना - एक ऐसी जटिल समस्या जिसका हल हम सब मिलकर नहीं निकाल पाए। अलग अलग मॉडल्स अपना कर देखे गए। पन्नी में आने वाला 20 रुपये का खाना, स्वादिष्ट लेकिन अत्यधिक गरिष्ठ। पन्नी का बेहूदापन ऊपर से। हफ्ते भर में बदलाव किया गया। खुद बनाने का निर्णय हुआ। तो बस बनाते ही रह गए। कुक लगाया गया, रविन्दर। सहवाग स्टाइल में 05 मिनट में 50 पराठें सेक देने वाला रविन्दर। जब लगा कि पेट मे तेल का एक कुआं बन गया है तो वो भी बंद कर दिया गया। आखिर में व्यवस्था जाके स्थिर हुई एक आंटी जी के टिफ़िन पर। टिफ़िन के डब्बे सम्भवतः मिर्ज़ा ग़ालिब के जमाने के थे। उनमें एक अजीब सी गंध थी, जो सुगन्ध तो कतई नहीं थी और जो दुर्गंध कहलाने से बस थोड़ा ही पीछे रह जाती थी। लेकिन ये व्यवस्था टिक गई क्योंकि इस टिफ़िन का खाना खाने से हम में से कोई भी कभी भी बीमार नहीं हुआ। इसको हम लोग एक परंपरा की तरह निभाते थे। धीरे धीरे चाय ने हमारे प्रमुख भोजन का रूप ले लिया। बिना पानी डाले हुए, दूध चाय पत्ती और चीनी को 20 मिनट सिम फ्लेम पर पकाकर जो चाय बनती थी वो हमें सारे विटामिन मिनरल मुहैय्या कराती थी। और शाम का सहारा होती थी हिन्दू होस्टल के सामने सुलभ शौचालय के बगल में सुदामा की चाय जिसको हम लोग पीते नहीं थे बल्कि बर्फी मानकर खाते थे। 

तो ये है तीसरी सलाह, भोजन का कुछ ऐसा जुगाड़ कर लें, जिससे खुद न बनाना पड़े और बीमार न हों। स्वाद पे ज्यादा ध्यान न दें। चाय जरूर पियें। 

मोबाइल। मैंने जानबूझकर लिया था नोकिया का काले रंग का बेसिक मोबाइल। उसमें फीड किये होंगे शायद कुल पंद्रह लोगों के नम्बर, जिसमे घर के कुछ लोग, कुछ दोस्त। बाकी सब से मैं इस दौरान सम्पर्क में नहीं रहा। इससे मुझे बहुत फायदा हुआ। मोबाइल हमारी ज़िंदगी की सबसे खतरनाक और बेवफा वस्तु है। उस डेढ़ साल के दौरान मैने इससे काफी हद तक छुटकारा पा लिया था। जवानी के जमाने मे ओरकुट की चिरकुटई और फेसबुक की बकैती से छुटकारा मैंने पा लिया था। व्हाट्सअप का इस्तेमाल तो सेलेक्शन के भी 6 महीने बाद शुरू किया होगा। 

नम्बर चार, कुछ समय के लिए अपने सामाजिक दायरे को अपनी 'कोर कमेटी' तक ही सीमित रखें। फोन उठाना बंद ही कर दें, जब तक बात करना अति-आवश्यक न हो। फोन उठाकर बीस मिनट थूक बिलोने से अच्छा है एकसौ बीस मिनट सो जाना। 

रूटीन बनाने की बात आई तो समझ आया कि भौर में उठ के पढ़ने वाला फॉर्मूला चल नहीं पाएगा। दिन में ध्यान भटकाने वाले फैक्टर बहुतेरे हैं। जैसे मकान मालिक की फालतू बातें, उसका ये रोना कि उसके घर मे अनाज का हर दाना आपके किराए की रकम से ही तो आता है, मोटर का चलना न चलना, पानी की टँकी का भरना न भरना, बगल वाली बंगाली आंटी जी का जादू टोना, सामने वाले घर मे बाप बेटे की फुल वोल्युम जंग वग़ैरह वगैरह। तो अपनी समझ मे ये आया कि कुछ ऐसा रूटीन रखा जाए जो चल सके। 8-9 बजे उठो, 1-2 बजे दोपहर तक पढ़ो या कोचिंग जाओ। कुछ खाओ, थोड़ा पढ़ो और आधा एक घन्टा सो जाओ। फिर 4-5 बजे उठो, चाय पियो, 6 से 9 बजे तक पढ़ो। दोस्तों के साथ बैठो, बकवास करो, फिर दो घण्टे पढ़ो, रात को 1-2 बजे सामूहिक चाय-पान करो, और फिर 4 बजे तक पढ़ के सो जाओ। कुल मिला के 06-07 घण्टे कम से कम सोने को मिल जाए, 10 घण्टे पढ़ाई के हो जाएं और बाकी में जिंदगी को नॉर्मल रखने की कोशिश की जाए। 

सलाह नम्बर पांच, "18 घण्टे पढ़ाई" के फेर में पढ़ने से अच्छा है रूटीन ऐसा पकड़ो जो साल भर के लिए चले और जो खुद पर हावी न हो। रोज़ 10 घण्टे शिद्दत से पढ़ना मेरे हिसाब से काफी है। मुददा समय से ज्यादा शिद्दत का है, और अनुशासन का है। 

किताबों की जहां तक बात है, तो प्रिलिम्स के लिए और मेंस के GS के पेपर के लिए हर सब्जेक्ट की कम से कम एक और ज्यादा से ज्यादा दो किताबों तक खुद को सीमित रखने की कोशिश की। रटने की मेरी काबिलियत इतनी बुरी थी कि ज़िंदगी में कच्ची एक पक्की एक से लेकर आज तक मैं कभी क्लास में चौथे स्थान से उपर नहीं बढ़ पाया। इसलिए अपनी कमी का एहसास होना भी बहुत जरूरी है। जब रट नहीं पाएंगे तो खुद को किताबों से घेरने का कुछ ज्यादा औचित्य नहीं है। सौरभ को आदत थी और है हर नई किताब खरीदने की। उसके कमरे में जाओ तो लगता था लाइब्रेरी में आ गए हों। और महर्षि चोरब अपने ऐतिहासिक बॉक्सर शॉर्ट्स में लाइब्रेरियन-रिसरचर की दोहरी भूमिका में आधा दर्जन किताब एक साथ पढ़ते हुए मिलते थे। बस 18 रुपये वाले छोले भटूरे आप लेकर गए हों तो मुनिवर अपनी साधना से तत्काल प्रभाव से बाहर आ जाते थे। 

छटी सलाह यही है कि किताबें उतनी ही पढ़ें, जितनी कायदे से पढ़ीं जा सके, पढकर समझा जा सके और अच्छा उत्तर लिखने के लिए जहाँ तक सम्भव हो समझकर कुछ अतिमहत्वपूर्ण तथ्यों को याद किया जा सके। रिसर्च न करें, तैयारी करें। 

कोचिंग, मैंने एक बार GS के लिए की और एक बार सोशियोलॉजी के लिए। मेरा और कोचिंग का सम्बंध कुछ ऐसा था कि मेरे सेलेक्शन के बाद से आजतक न कोचिंग संस्थान वालों को और न ही किसी टीचर को पता है कि उन्होंने मुझे पढ़ाया है और मेरा सेलेक्शन हुआ है। मतलब ये है कि आखरी सीट पर बैठकर मैं पूरी शिद्दत से नोट्स बनाता था अपनी समझ के अनुसार, और वापस कमरे पर आकर उनको पढ़ लेता था। मुझे वो प्रो-एक्टिव लोग काफी फ़र्ज़ी लगते थे जो आलतू फालतू सवाल पूछते रहते थे और क्लास के बाद अलग से मास्टर जी से कुछ न जाने क्या डिसकस करते थे। और वो महा-फ़र्ज़ी लगते थे जो क्लास में ऐसे आते थे/थी जैसे फ़िल्म की शूटिंग करने के लिए आए हों। हम लोगों ने कोशिश यही की कि कोचिंग क्लास में जाके दिए गए पैसे वसूल कर लें और  ज्यादा से ज्यादा टॉपिक अच्छे से समझ के पेपर से दो दिन पहले काम आने वाले नोट्स कायदे से बना लें। 

नम्बर सात, कोचिंग कौनसी कर रहे हैं ये महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन वहां जाकर क्या कर रहे हैं ये असली काम की बात है। वहां जाकर हीरो बनने में, सौंदर्य ढूंढने में, upsc वाले बाबा जी टाइप ग्रुप डिस्कशन करने में, स्टडी मैटीरियल बीनने में, ज्ञान झाड़ने में, और रेत के महल बनाने में टाइम बर्बाद करने की सम्भावनाओं से खुद को बचाकर रखें। जाएं, पढ़ें और आ जाएं। 

हम सभी लोगों ने उस दौरान मिलकर 100 एग्जाम तो दे ही दिए होंगे। हर इतवार को हम लोग सुबह योद्धाओं की तरह निकल पड़ते थे किसी न किसी नौकरी का इम्तिहान देने। SSC, Bank PO, ACIO, CAPF, UP PCS, फोरेस्ट, Rajasthan PCS और न जाने कितने। फायदा ये हुआ कि हर रविवार को पेपर देना एक आदत बन गयी, और जिस दिन CSE का प्रीलिम्स था तो अचानक से ये महसूस नहीं हुआ कि कयामत का दिन आज ही तो है। अब तो आदत सी है हमे पेपर देने की...ये वाली फीलिंग थी। इससे आप exam pressure/anxiety को हैंडल करने के आदी हो जाते हैं।  ये है ज्ञान धारा नम्बर आठ। 

अखबार पढ़ना मुझे तो इस परीक्षा के लिए सबसे कारगर व महत्वपूर्ण काम लगा। मैं लगभग 03 घण्टे अखबार पढ़ने व उसमें आये महत्वपूर्ण मुद्दों पर लैपटॉप पर काम की बातें ढूंढकर short-hand नोट्स बनाने में लगाता था। इससे आपके विचारों का दायरा बढ़ता है, आपको लिखने का तरीका पता चलता है और थ्योरेटिकल बातों को, concepts को आज के परिदृश्य से जोड़कर देखने का अनुभव होता है जो मुझे मेंस में अच्छे उत्तर लिखने और उससे भी ज्यादा पर्सनेलिटी टेस्ट में अच्छे जवाब देने में बहुत ज्यादा काम आया। तो अखबार पढ़ें। और समझें। नम्बर 09।

जब पढ़ते हुए बोर हो जाते थे तो कभी कभार हम लोग रात को ढाई तीन बजे ये देखने रिज के जंगल मे चले जाते थे कि वहाँ के कुख्यात और विख्यात अंग्रेज और देसी भूत भी जगे हुए हैं या नहीं। अम्बा सिनेमा हॉल में गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी कोई फ़िल्म लगी हो तो देख आते थे। जुमेरात को हज़रत निजामुद्दीन की सूफी दरगाह में कव्वाली सुन आते थे। जिंदगी को नॉर्मल रखना भी बहुत जरूरी है। पागल नहीं होना है, नॉर्मल रहते हुए सब कुछ करना है। 

यही है दसवीं व सबसे जरूरी बात। न तो ये धारणा मन मे बनाएं कि हमें तो उपर वाले ने बस एक यही इम्तेहान पास करने के लिए भेजा है और न ही इस चुनौती को अपने ऊपर हावी होने दें। आत्मविश्वास की अति और कमी दोनों आपको नुकसान पहुँचाती हैं।  सफल होने के लिए आपको 07 साधारण दिनों की आवश्यकता होती है, एक दिन प्री, पांच दिन मेन्स और एक दिन पर्सनेलिटी टेस्ट। बस सातों दिन साधारण भी निकल जाएं तो आप सफल हो जाएंगे। एक भी दिन बेकार निकल गया तो कहीं न कहीं कमी रह जाएगी जो आपको पीछे कर देगी। 

एक सलाह अपने अनुभव से अति-महत्वपूर्ण। लाल बत्ती कभी न तोडें ट्रैफिक नियमों का पालन करें। हुआ यूं कि हम दस दोस्तों ने मिलकर एक स्प्लेंडर खरीदी थी, फिर सभी ने तेज़ मोटरसाइकल चलानी सीखी। कुछ हाथ टूटे, कुछ पैर। लेकिन हौसले नहीं टूटे। एक दिन इसी हौसले की उड़ान का पायलट मैं बन बैठा और पिछली सीट पर बैठे संजय बागड़ी से बात करते करते ये एहसास ही नहीं हुआ कि लाल बत्ती कूद चुके हैं। बाएं तरफ से आ रहे ऑटो से टकराते हुए हवा में कार्टव्हीलिंग करते हुए घुटना सड़क में कुछ ऎसे ठुका कि आजतक जी का जंजाल बना हुआ है। किस्मत तेज़ थी फिर भी कि बाकी कहीं ज्यादा गम्भीर चोट नहीं लगी। 

ज्यादा ज्ञान झाड़ने के लिए भी एक अलग टेम्परामेंट की जरूरत होती है। मैंने कोशिश की है ये बताने की की मोटा मोटी कैसा माहौल बनाकर तैयारी करने का फायदा मुझे हुआ। हर एक का अपना अनुभव और तरीका होता है। अपना तरीका आप खुद बना लेंगे जब इस समर में कूदेंगे तो। बशर्ते कि जब कूदें तो करेजा मजबूत कर के। इरादा चट्टान जैसा होगा तो बाकी चीज़े ख़ुद-ब-ख़ुद होती जाएंगी। प्लान वही बनाएं जो निभा सकें, और निभाएं वही जो वायदे खुद से कर के आप चले हैं। बेवफाई से तो किसी गैर से भी इश्क़ मुक्कमल नहीं हो सकता, अपने सपने से की मोहब्बत तो और ज्यादा वफ़ा मांगती है। 

और हाँ, अगर कुछ हल्का पढ़ने का मन हो तो श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी के पांच सात पन्ने पढ़ लें, हँसने के लिए टॉनिक है। 

आखिर में वो दो लाइन जो ज़िंदगी मे हमेशा मैंने बुरे समय में अपने साथ रखी हैं --
"गिरते हैं शह-सवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले हैं". 



Comments

  1. Quite motivational and inspirational

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  2. प्रेणादायक कम्पटीशन की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए।

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  3. बहुत ही साधारण शब्दों में कंपटीशन की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए, वह 10 ज्ञान और एक व्यक्तिगत सलाह जिसको पढ़ कर शायद जीवन को बदला जा सकता है, बहुत ही सराहनीय और अच्छा लिखा आपने, ज्यादा से ज्यादा लोगों को पढ़ना चाहिए।

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  4. बहुत बढ़िया,upsc की मर्ज की यही दस दवा का डोज पर्याप्त है।

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  5. ये लेख सिर्फ छात्रों के लिए ही नही बल्कि हर एक उम्र के इंसान के लिए कुछ न कुछ सीख जरूर दे जाता है।।

    शानदार, जोरदार, जबरदस्त😊👌

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  6. आपकी शानदार छटी सलाह " किताबें उतनी ही पढ़ें, जितनी कायदे से पढ़ीं जा सके l रिसर्च न करें, तैयारी करें l "

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  7. सर अनुकरणीय

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. छात्र जीवन से बेहतर कोई समय नहीं हो सकता। पिता के कम पैसे में भी वह सूकून था कि आज की लाखों की कमाई से भी हासिल नहीं हो सकता । कंपटीशन की तैयारी के लिए अखबार पढना तो मूल मंत्र था।जिन्हें इंग्लिश स्पीकिंग का शौक होता उन्हे अंग्रेजी फिल्में देखने की भी राय दी जाती थी । खाना पकाना एक ऐसा काम होता था जो शायद सबसे कठिन सिलेबस होता था। नौकरी तो मिल गई मगर आजादी व बे फिक्री चली गई

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  10. मजा आ गया सर कमरा दोस्त भोजन सामाजिकता रूटीन किताबें कोचिंग टेस्ट अखबार और नॉर्मल जिंदगी तैयारी के दिनों की मूलभूत बातें समेट लिया सर हर बात महत्वपूर्ण और सफलता में आगे और पीछे कर सकने में सक्षम सर शैली भी बहुत इंटरेस्टिंग

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  11. बहुत ही उम्दा तरीके से अपने मेहनत की उसका परिणम भी आज आपके साथ है भइया। आज भी आप हर एक व्यक्ति की समस्या को समझते होंगें
    जय हिंद

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  12. बहुत बढ़िया भाई :)👍 राग दरबारी मैं भी recently ही पढ़ा हूँ।☺️😊
    Very informative hai... It will motivate upsc aspirants.... and other students too... :)
    Alok

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  13. I am not a UPSC Aspirant ..Came to this blog through Twitter ..Mr Anurag has bee SP of my hometown Mau and been very efficient otherwise small cities me to thana neta logo ki dalali ka adda ban jaati hai..the point i want to bring that Getting selected is just start of the journey . Being in this cadre of service your decision impacts millions of life .

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  14. बहुत ही संतोष जनक

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  15. बेहतरीन सर, शिक्षाप्रद

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  16. बहुत बेहतरीन, कप्तान साहब। ।

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  17. Bhaut shandaar anurag bhai..aapke jajbe ko slam

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  18. उम्दा ,अच्छा लगता हैं जब कोई हमें कहता है कि अतुल भाई तुम भी छपरौली से हो,में पूछता हूँ, मै भी मतलब, वो कहते हैं अरे तुम्हारे गाँव के वो हैं अनुराग आर्य IPS जानते हो उनको।💪

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  19. आप का धन्यवाद, ये लिखने के लिए जो बहुत से मार्गदर्शन विहीन युवाओं को मदद होगी.

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  20. आपने बहुत ही अच्छी जानकारी शेयर की है। जीवन के हर संघर्ष को बखुबी बताया है। हर किसी को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए

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  21. प्रेरणादायक

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    1. अति सुन्दर, खुली किताब की तरह रख दिया सब बातो को । मन को काफी अच्छा लगा ।

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  22. व्यवहारिक और मौलिक ज्ञान

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  23. मुख्तार अंसारी जैसे माफिया डॉन को नेस्तनाबूद करने वाले जांबाज को दिल से सैल्यूट!!

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